जब बैठती हू अकेले में तो एक मंजर याद आता है, वह मंजर ही था या ………..सच ये समझ नहीं आता है | अगर ये सच है … तो शर्मसार है मानवता ,
है एक मानव और जानवर में भी फर्क …
तो ये फर्क समझ नहीं आता है |
देखा था मैंने दो बच्चो को आपस में लड़ते हुए , इस मायूस जिन्दगी में अपनी हंसी से रंग भरते हुए | न तो थे बदन पे कपड़े और न ही था सर पर किसी का हाथ , फिर भी चल पड़े थे इस अंजान दुनिया में एक – दूजे के साथ | बच्चे तो होते है खुदा का रूप … न होती है उनमे कोई खोट , उन्हें न पता था की ये जालिम दुनिया देगी उन्हें हर कदम पर एक चोट | “क्यों गरीबी होती है इतना बड़ा अभिशाप , तो ये अभिशाप समझ नहीं आता है |”
है एक मानव और जानवर में भी फर्क …
तो ये फर्क समझ नहीं आता है |
जिस उम्र में होने चाहिए थे उनके हाथो में खिलौने ,
फिर किसने छीन लिए उनके ये सुंदर सपने सलौने |
कोई छोड़ देता है इन्हें मंदिरों की सिढियो पर ,
तो कोई फेंक देता है अपनी बदनसीबी समझकर |
“क्यों कोई समझता ही नही ये है इश्वेर का ही अंश ,
ये सच समझ नहीं आता है |”
है एक मानव और जानवर में भी फर्क …
तो ये फर्क समझ नहीं आता है |
चाहते है वो हमसे बस कुछ प्यारी सी मीठी सी पुचकारिया,
बदले में फिर क्यों देते है हम उन्हें सिर्फ गालिया ही गालिया |
हर भाषण में एक नेता एक वक्ता ये कहता है ……..
बाल मजदूरी है अपराध इसे रोको |
“फिर क्यों उन्ही के घरो में मिल जाते है
अक्सर ये बदनसीब ,ये सच समझ नहीं आता है “
है एक मानव और जानवर में भी फर्क …
तो ये फर्क समझ नहीं आता है |
आखिर क्यों? हम इस जिन्दगी में दोहरे रूप रखते है
एक पल देवता तो दूजे पल हैवान क्यों बनते है ?
“ऐसा भी होता है परिवर्तन तो यह परिवर्तन समझ नै आता है |”
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