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पहचान

हमारा नजरिया
हमारा नजरिया
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कहते हैं जिन्दगी जब सिखाती हैं तो अच्छा ही सीखती है ………पर उनका क्या जो हर दिन जिन्दगी से लड़ के जीते हैं . सीखना तो दूर की बात हो गई यहाँ तो कई लोग मरने के लिए भी जंग लड़ते हैं . हर दिन , हर लम्हा और हर पल सिर्फ और सिर्फ हम में से कई का ये सोचते हुए बीत जाता हैं की क्या करे और क्या न करे ? घर वालो की सुने या दोस्तों की , रिश्तेदारों की सुने या चाहने वालो की । इन सबकी आवाजो में खुद की आवाज़ सुनाई ही नहीं देती की हम क्या चाहते हैं अपने बारे में। कभी चुप रहे तो दुनिया वालो ने समझा कमज़ोर हैं हम , जब हँसे तो कहा बेशर्म हैं हम . जब इश्वेर के बनाये गये इंसान से प्यार किया तो कहा पागल हैं हम और जब उसी से नफरत की तो कहा बेदर्द हैं हम ,जीवन की हर कसौटी ने हमे परखा पर कभी समझा नहीं शायद यही वजह हैं जो आज तक हम अपने को समझ ही नहीं पाए हैं की आखिर क्या हैं हम ?

असफलताओ से थक हार कर जब हमने सोचा बस अब और नहीं ..अब नहीं बढ़ सकता अब मैं और नहीं चल सकता , कब तक और रोऊंगा और कब तक छुपाऊ अपनी कमजोरी को किस से बताऊ की मुझे बस एक मौका चाहिए अपने को साबित करने का पर मुझे दुत्कार मिली एक नहीं कई बार मिली । माँ ने कहा तू तो मेरा लाल हैं बड़ा होशियार हैं जा अपनी पहचान बना , पर माँ तुझे कैसे बताऊ की यहाँ पहचान सिर्फ चेहरे की हैं और वो भी चमकदार जो लिपा पुता हो फरेब के नकाब से जो बोलता हो सिर्फ सिखाई हुई भाषा और एक शरीर हो जो ढाका हो कीमती लिवाजो से। इन सबके सामने मेरा हुनर छुप जाता हैं और फिर वही एक सवाल सामने आ जाता हैं क्या करू मैं ?

मजेदार बात तो देखो ये दुनिया जीने भी नहीं देती हैं और चैन से मरने भी नहीं देती . और तो और हम करना कुछ और चाहते हैं तो उसमे हमारी परछाई तक साथ नहीं देती . बांध लेती हैं हमें , जकड लेती हैं ….उन्ही अपनों के लिए जिनके लिए हम अपनी पहचान बनाने निकले थे ।

(अर्चना चतुर्वेदी )

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